जब ओम प्रकाश चौटाला ने अपने पिता देवीलाल से कहा- 'जा बूढ़े, अपना काम खुद कर ले', तब शुरु हुई बुढ़ापा पेंशन, पढ़िए ताऊ देवीलाल का पूरा जीवन

Op Chautala And Devilal


चौधरी देवीलाल भारतीय राजनीति के एक प्रमुख नेता और किसान आंदोलन के नायक थे। उनका जन्म 25 सितंबर 1914 को हरियाणा के सिरसा जिले में हुआ था। उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि वे अशुभ नक्षत्र में पैदा हुए हैं, लेकिन अपने जीवन में बड़ा मुकाम हासिल करेंगे। यह भविष्यवाणी उनके जीवन के संघर्ष और उपलब्धियों से पूरी तरह सच साबित हुई।


प्रमुख घटनाएं और उपलब्धियां

  1. किसान नेता के रूप में पहचान
    1950 के दशक तक देवीलाल ने किसान आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की और एक लोकप्रिय किसान नेता के रूप में उभरे। उनकी आवाज किसानों के हक और अधिकारों के लिए बुलंद रही।

  2. राजनीतिक शुरुआत
    1952 में वे पहली बार विधायक बने और हरियाणा की राजनीति में अपनी जगह मजबूत की।

  3. कांग्रेस से अलगाव
    1968 में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया। इस घटना से नाराज होकर 1971 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी।

  4. जनता पार्टी में शामिल
    1977 में वे जनता पार्टी में शामिल हुए। उसी साल हुए चुनाव में कांग्रेस को हराकर वे पहली बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने।

  5. मुख्यमंत्री और उप-प्रधानमंत्री का सफर

    • 1987 में हरियाणा विधानसभा चुनाव में लोकदल ने बड़ी जीत दर्ज की। उन्होंने दूसरी बार मुख्यमंत्री का पद संभाला।
    • 1989 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर केंद्र में भारत के उप-प्रधानमंत्री का पद ग्रहण किया। यह पद संभालने वाले वे पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने शपथ में 'उप-प्रधानमंत्री' का उल्लेख किया।

चौधरी देवीलाल: संघर्ष, सपना और सरहद पर पिता की अंतिम विदाई

साल 1936-37। भारत अभी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, लेकिन इसी बीच संयुक्त पंजाब में विधानसभा चुनाव का शोर था। हर गांव, हर गली में राजनीति चर्चा का केंद्र बन चुकी थी। इसी माहौल में सिरसा के चौटाला गांव के लेखराम सिहाग का सपना था कि उनका छोटा बेटा विधायक बने। मगर नियति को कुछ और मंजूर था।

लेखराम का छोटा बेटा बेहद होनहार और मेहनती था। लेकिन उसकी उम्र चुनाव लड़ने के लिए जरूरी सीमा से डेढ़ साल कम थी। पिता ने उसे सिखाया था कि संघर्ष और धैर्य ही जीवन की सबसे बड़ी पूंजी हैं। बेटे ने यह बात गांठ बांध ली थी। उस समय आत्माराम को कांग्रेस से टिकट मिला, और छोटे लड़के ने उनके लिए दिन-रात मेहनत की। उसका जुनून और मेहनत देखते ही बनती थी। आत्माराम चुनाव जीत गए, लेकिन चुनाव में गड़बड़ी के आरोपों के चलते हाईकोर्ट ने नतीजे रद्द कर दिए।


1938 का उपचुनाव: बड़ा भाई, लेकिन मेहनत छोटे भाई की

जब 1938 में उपचुनाव हुए, तो स्थिति वैसी ही रही। लड़के की उम्र अभी भी कम थी, और इस बार कांग्रेस ने उसके बड़े भाई साहबराम को टिकट दिया। चुनाव प्रचार की पूरी जिम्मेदारी छोटे भाई ने संभाल ली। इस बार चुनाव में यूनियनिस्ट पार्टी के दिग्गज नेता चौधरी छोटूराम, चौधरी खिजर हयात खां तिवाना और सर सिकंदर हयात खान जैसे बड़े नाम मैदान में थे।

चुनाव का माहौल गरम था। बड़े-बड़े नेता साहबराम के खिलाफ प्रचार कर रहे थे, लेकिन छोटे भाई की रणनीति और दिन-रात की मेहनत ने सबको चौंका दिया। नतीजा आया, तो साहबराम जीत गए। लेकिन पूरे चुनाव में असली चर्चा छोटे भाई की हुई। पूरे इलाके में उसके नाम की गूंज थी। हर कोई पूछ रहा था, "ये लड़का कौन है?"


1946: उम्र हो गई पूरी, लेकिन टिकट फिर भाई को मिला

1946 के चुनाव में लड़के की उम्र आखिरकार चुनाव लड़ने के लायक हो गई थी। उसे उम्मीद थी कि अब की बार पार्टी उसे मौका देगी। लेकिन नियति फिर उसके धैर्य की परीक्षा ले रही थी। टिकट फिर से बड़े भाई साहबराम को मिला। लड़के ने अपनी भावनाओं को काबू में रखा और भाई के लिए पूरी लगन से काम किया।

देश आज़ादी के करीब था, लेकिन उसके सपने अभी भी दूर थे।


1952: पहला आम चुनाव और पिता का सपना

देश आज़ाद हो चुका था। 1952 में पहले आम चुनाव के साथ पंजाब विधानसभा के भी चुनाव हुए। कांग्रेस ने इस बार लड़के को सिरसा से टिकट दिया। यह उसके लिए केवल चुनाव नहीं था, बल्कि अपने पिता का सपना पूरा करने का मौका था।

दिल्ली से गांव तक का सफर

दिल्ली में टिकट बंटवारे का फैसला हुआ। जैसे ही लड़के को खबर मिली कि उसे टिकट मिल गया है, उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने अपनी जीप निकाली और तुरंत अपने गांव चौटाला के लिए निकल पड़ा। वह पूरे रास्ते पिता के चेहरे की कल्पना कर रहा था। सोच रहा था कि कैसे उसके पिता उसे देखकर गर्व महसूस करेंगे।

लेकिन जब वह गांव की सरहद पर पहुंचा, तो एक अजीब सा सन्नाटा था। वहां खड़े एक व्यक्ति ने उसे बताया, "पिता जी नहीं रहे।"

यह खबर सुनते ही लड़का स्तब्ध रह गया। उसके कदम लड़खड़ा गए। जिस पिता ने जीवन भर उसके सपनों को अपना सपना बनाया था, वह आज उसे विधायक बनता देखने के लिए इस दुनिया में नहीं थे।


चुनाव और पहली जीत

अपने पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने का संकल्प लेकर लड़के ने चुनाव लड़ा। उसके अंदर केवल जीतने का जुनून नहीं था, बल्कि अपने पिता के प्रति कृतज्ञता भी थी। चुनाव का नतीजा आया और वह जीत गया। वह पहली बार विधायक बना।


देवीलाल: राजनीति का सितारा

यह लड़का और कोई नहीं, चौधरी देवीलाल थे। उन्होंने केवल अपने गांव या हरियाणा की राजनीति में ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़ी। दो बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने, दो बार देश के उप प्रधानमंत्री का पद संभाला, और अपने दम पर कई सरकारें बनाईं और गिराईं।

पिता की प्रेरणा, संघर्ष की मिसाल

चौधरी देवीलाल का जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे संघर्ष और सपनों की ताकत से इंसान अपनी मंजिल तक पहुंच सकता है। उनकी कहानी में केवल राजनीति नहीं, बल्कि एक बेटे का अपने पिता के प्रति आदर और समर्पण भी झलकता है।


चौधरी देवीलाल और भारत छोड़ो आंदोलन

साल 1942। पूरा भारत "भारत छोड़ो आंदोलन" की आग में जल रहा था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। लेकिन पंजाब? वहां गहरी खामोशी थी। इसकी वजह थी यूनियनिस्ट पार्टी का दबदबा और उनके सबसे बड़े नेता सर छोटूराम।

इस राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस का असर न के बराबर था। लेकिन एक युवा, जोश से भरा और साहसिक नेता, चौधरी देवीलाल ने ठान लिया कि वह इस खामोशी को तोड़ेंगे। उनकी हर योजना, हर कदम उस वक्त के अंग्रेज हुकूमत को चुनौती देने का इरादा लिए हुए था।


हथियार लूटने की योजना: जब गांववालों की सुरक्षा पहली प्राथमिकता बनी

वरिष्ठ पत्रकार आलोक सांगवान के मुताबिक, देवीलाल ने कांग्रेस के प्रभाव को बढ़ाने और आंदोलन को तेज करने के लिए एक बड़ी योजना बनाई। सिरसा तहसील के तीन थानों से हथियार लूटने का प्लान बना। वह जानते थे कि अंग्रेजों को उन्हीं के हथियारों से हराना सबसे बड़ी जीत होगी।

लेकिन इस योजना में एक पेंच था। देवीलाल को अहसास हुआ कि अगर वे यह कदम उठाते हैं, तो उनके गांव के लोग और परिवार बुरी तरह फंस जाएंगे। अंग्रेजों की क्रूरता का खामियाजा निर्दोष लोगों को भुगतना पड़ेगा। उन्होंने तुरंत इस योजना को रद्द कर दिया। यह फैसला उनके भीतर के संवेदनशील और दूरदर्शी नेता को दर्शाता है।


चेन पुलिंग की रणनीति: जब अंग्रेजों का चैन छीना गया

देवीलाल ने दूसरा प्लान बनाया। उन्होंने चौटाला गांव में 50 लोगों की एक टीम तैयार की। यह टीम बारी-बारी से भठिंडा जाती और वहां से अलग-अलग ट्रेनों में बैठ जाती। ट्रेन के कुछ दूर चलने पर टीम के सदस्य चेन पुलिंग कर ट्रेन रोक देते।

पुलिस से सीधा टकराव

जब पुलिस और टीटी पहुंचते, तो ये लोग चेन पुलिंग करने की जिम्मेदारी खुद पर लेते और अपने नेता का नाम बताते – देवीलाल।
यह रणनीति अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक अलग तरह का विद्रोह थी। यह लड़ाई सीधी, साहसी और मनोवैज्ञानिक थी। अंग्रेजी पुलिस को उनकी रणनीति समझ ही नहीं आती थी।


जंडवाला गांव की सभा: जब साहस ने थानेदार को पीछे हटने पर मजबूर किया

एक दिन, जंडवाला गांव में देवीलाल एक सभा को संबोधित कर रहे थे। गांव के लोग उनके भाषण को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। इसी दौरान थानेदार कुछ सिपाहियों के साथ वहां पहुंच गया।

थानेदार को चुनौती

देवीलाल ने थानेदार को देखा और मुस्कुराते हुए बोले, “थानेदार साहब, थोड़ा रुक जाओ। मैं भागने वाला नहीं हूं। भाषण पूरा करने दो, फिर आपकी सेवा में हाजिर हो जाऊंगा।”
थानेदार कुछ पल के लिए रुक गया, लेकिन देवीलाल का दिमाग भागने की योजना पर काम कर रहा था। तभी उनकी नजर सामने बैठे एक विकलांग व्यक्ति पर पड़ी, जिसके हाथ में एक लाठी थी। देवीलाल ने बिना देर किए लाठी उठाई और थानेदार की तरफ दौड़ पड़े।

6 फुट 2 इंच का विशाल व्यक्तित्व और लाठी का वार

अपने सामने लाठी लेकर दौड़ते हुए 6 फुट 2 इंच के देवीलाल को देखकर थानेदार और सिपाही हक्के-बक्के रह गए। उनके पास भागने के अलावा और कोई चारा नहीं था। देवीलाल ने इस मौके का फायदा उठाया। वह अपने घोड़े पर सवार हुए और गांव से निकल गए।


रास्ते में बदले कपड़े: पुलिस को चकमा

भागने के दौरान उन्होंने अपने दोस्त के कपड़े पहन लिए और अपने कपड़े दोस्त को पहना दिए। इस चालाकी की वजह से पुलिस उनके दोस्त के पीछे पड़ गई, जबकि देवीलाल सही-सलामत बच निकले।


सरेंडर की शर्त: जब नेतृत्व और साहस दिखा

लगातार घटनाओं से अंग्रेजी पुलिस बौखला गई थी। उन्होंने देवीलाल तक पहुंचने के लिए उनके भाई से संपर्क किया। देवीलाल ने पुलिस के सामने सरेंडर करने की सहमति दी, लेकिन अपनी शर्त रखी –
“अगर इलाके के 11 लोग अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ गिरफ्तारी देंगे, तभी मैं सरेंडर करूंगा।”

सामूहिक गिरफ्तारी और पहली बार जेल

देवीलाल की शर्त को मानते हुए 12 लोगों ने गिरफ्तारी दी। इसके बाद देवीलाल ने खुद को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। यह उनकी पहली गिरफ्तारी थी। लेकिन इस गिरफ्तारी में भी उनकी शर्तें और साहस झलकता है।

किसानों के पानी के लिए जमींदारों से भिड़ गए

चौधरी देवीलाल, जमींदार परिवार से होने के बावजूद हमेशा शोषण व्यवस्था के खिलाफ खड़े रहे। उनकी जीवनी ‘चौटाला से चंडीगढ़’ में राजा राम लिखते हैं कि देवीलाल ने इस संघर्ष की शुरुआत अपने गांव से की। राजस्थान और उसके आसपास के क्षेत्रों में पानी की कमी एक बड़ी समस्या रही है। इसे दूर करने के लिए हर साल गांवों में तालाबों की मिट्टी निकालने की परंपरा थी, ताकि बरसात का पानी ज्यादा इकट्ठा हो सके।

देवीलाल ने इस काम के लिए 21 लोगों की एक "जूल व खदान समिति" बनाई। यह समिति रोज बैठक करती, जहां तालाब खुदाई से लेकर किसानों और मजदूरों के अधिकारों पर चर्चा होती। धीरे-धीरे इन बैठकों में लोगों की संख्या बढ़ने लगी और किसानों को उनके अधिकारों का एहसास होने लगा।

जब संगठन मजबूत हो गया, तो देवीलाल ने इस पर जोर दिया कि पानी सबकी साझी जरूरत है, इसलिए तालाब खुदाई में सबको योगदान देना चाहिए। लेकिन बड़े जमींदारों ने इसे मानने से इनकार कर दिया। इसके जवाब में समिति ने फैसला किया कि जो लोग सहयोग नहीं करेंगे, उन्हें कुएं से पानी भरने नहीं दिया जाएगा।

अगली सुबह गांव के हर घर से एक व्यक्ति लाठी लेकर कुएं पर तैनात हो गया। जमींदारों के लोग जब पानी भरने आए, तो गांव की एकजुटता देखकर लौट गए। मामला पुलिस तक पहुंचा, लेकिन गांव की स्थिति देखकर पुलिस ने भी जमींदारों को समझौता करने की सलाह दी। आखिरकार, जमींदारों को समिति के फैसले को मानना पड़ा।


महंत के कहने पर लाल जांघिया पहनकर चुनाव प्रचार

सिरसा जिले के बाजेकां गांव के पूर्व सरपंच शिवराम सिंह एक इंटरव्यू में बताते हैं कि 1974 के रोड़ी उपचुनाव के दौरान देवीलाल ने उन्हें स्थानीय महंत तारा बाबा के पास सलाह लेने भेजा। तारा बाबा ने सारी बात सुनने के बाद कहा, "देवीलाल को एक महीने तक लाल जांघिया पहनना चाहिए, तभी उनका हार का सिलसिला टूटेगा।"

देवीलाल ने महंत की बात मानी और पूरे महीने लाल जांघिया पहनकर चुनाव प्रचार किया। शिवराम बताते हैं कि देवीलाल का लाल जांघिया उनकी सफेद धोती के अंदर से साफ झलकता था। लोग उनका मजाक उड़ाते, लेकिन देवीलाल ने इसकी परवाह नहीं की। संयोगवश, उस चुनाव में वे विजयी रहे।


मोरारजी देसाई से तीखा जवाब: "तुमने मेरी झोपड़ी में आग लगाई..."

1971 में कांग्रेस छोड़ने के बाद चौधरी देवीलाल ने इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी का जोरदार विरोध किया। 1977 में इमरजेंसी खत्म होने के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हो गए। हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 3 सीटें मिलीं, जबकि जनता पार्टी ने 75 सीटें जीतकर सरकार बनाई। चौधरी देवीलाल पहली बार मुख्यमंत्री बने।

हालांकि, जनता पार्टी के अंदर गुटबाजी शुरू हो चुकी थी। देवीलाल चौधरी चरण सिंह के करीबी थे, जबकि प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई एक अलग गुट के नेता थे। मोरारजी गुट के नेता भजनलाल ने देवीलाल के खिलाफ माहौल बनाना शुरू किया।

हरियाणा के पूर्व वित्त मंत्री प्रो. संपत सिंह बताते हैं कि 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के घर एक बैठक हुई, जिसमें देवीलाल को मुख्यमंत्री पद से हटाकर भजनलाल को यह जिम्मेदारी सौंपने का फैसला लिया गया। जब देवीलाल को इस साजिश का पता चला, तो वे गुस्से में मोरारजी देसाई के पास पहुंचे और कहा, "तुमने मेरी झोपड़ी में आग लगाई है, मैं तुझे महल में रहने नहीं दूंगा।"

इसके बाद देवीलाल ने चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में मोरारजी के खिलाफ खेमेबंदी शुरू की। कुछ ही हफ्तों में, 28 जुलाई 1979 को मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई, और चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। सितंबर 1979 में जब चौधरी चरण सिंह ने लोकदल की स्थापना की, तो देवीलाल भी उनके साथ शामिल हो गए।

राज्यपाल को जड़ा थप्पड़: 1982 की विवादित घटना

1982 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में लोकदल और भाजपा ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने 90 में से 36 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, जबकि लोकदल और भाजपा गठबंधन को कुल 37 सीटें मिलीं। सत्ता की चाबी 16 निर्दलीय विधायकों के हाथ में थी।

राज्यपाल जीडी तपासे ने 22 मई को देवीलाल को बहुमत साबित करने का न्योता दिया। देवीलाल ने 37 गठबंधन विधायकों के साथ 8 निर्दलीय विधायकों का समर्थन पत्र राज्यपाल को सौंपा। राज्यपाल ने आश्वासन दिया कि सोमवार को विधायकों की परेड के बाद उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जाएगी। विधायकों की खरीद-फरोख्त की आशंका के चलते देवीलाल अपने समर्थकों को लेकर हिमाचल चले गए।

हालांकि, अगले दिन, 23 मई को, राज्यपाल तपासे दिल्ली पहुंचे और हरियाणा भवन में कांग्रेस नेता भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। जब देवीलाल को इस घटना की जानकारी मिली, तो वे गुस्से में उबल पड़े।

अगले दिन देवीलाल राजभवन पहुंचे और राज्यपाल तपासे से सरकार बर्खास्त करने की मांग की। दोनों के बीच तीखी बहस हुई, और गुस्से में देवीलाल ने राज्यपाल की ठुड्डी पकड़कर उनके गाल पर जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। इस घटना की देशभर में आलोचना हुई, लेकिन देवीलाल पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।


1985 का समझौता और ‘न्याय युद्ध’

1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अकाली दल के अध्यक्ष संत हरचंद सिंह लोगोंवाल के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें चंडीगढ़ और रावी-व्यास नदी के जल बंटवारे का मामला शामिल था। यह समझौता हरियाणा के हितों के खिलाफ माना गया, जिससे राज्य में भारी आक्रोश फैल गया।

देवीलाल ने इस मुद्दे को लेकर बड़ा विरोध किया। लोकदल के 18 विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा देकर ‘न्याय युद्ध’ का ऐलान किया। 1987 के चुनाव में जनता ने इस संघर्ष को समर्थन दिया, और लोकदल ने 60 सीटों पर जीत हासिल की। इसके बाद देवीलाल दूसरी बार हरियाणा के मुख्यमंत्री बने।

वृद्धावस्था पेंशन का आइडिया: घर से मिली प्रेरणा

देवीलाल जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, उनकी उम्र 74 के पार थी। एक बार वे तेजा खेड़ा फार्म पर थे और उन्होंने बेटे ओमप्रकाश चौटाला से कोई काम करने को कहा। चौटाला ने जवाब में कहा, "जा बूढ़े, अपना काम खुद कर ले।" उस समय वहां मौजूद वरिष्ठ पत्रकार बीके चंब भास्कर बताते हैं कि यह सुनकर देवीलाल ने कहा, "जब मैं मुख्यमंत्री हूं और मेरा बेटा मुझसे ऐसा बोल सकता है, तो आम आदमी के साथ क्या होता होगा?"

इसी घटना के बाद उन्होंने हरियाणा में वृद्धावस्था पेंशन योजना शुरू की। यह देश में अपनी तरह की पहली योजना थी, जिसके तहत 65 साल से ऊपर के बुजुर्गों को 100 रुपए मासिक पेंशन दी जाने लगी। बाद में, जब देवीलाल उप-प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने इसे केंद्र में लागू करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन यह आगे नहीं बढ़ सका। आखिरकार, नरसिम्हा राव सरकार ने इस योजना को देशव्यापी रूप में लागू किया।


प्रधानमंत्री पद ठुकराने का किस्सा

1 दिसंबर 1989 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में जनता दल की बैठक चल रही थी। बैठक की अध्यक्षता मधु दंडवते कर रहे थे और संसदीय दल के नेता का चुनाव हो रहा था। यशवंत सिन्हा अपनी किताब ‘रेलेंटलेस’ में लिखते हैं कि वीपी सिंह, जिन्होंने राजीव गांधी सरकार के खिलाफ जनता दल की जीत में बड़ी भूमिका निभाई थी, प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। लेकिन उन्होंने चौधरी देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसका चंद्रशेखर ने तुरंत समर्थन किया।

मधु दंडवते ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता घोषित कर दिया। यह खबर सुनते ही सेंट्रल हॉल में सन्नाटा छा गया। बाहर खड़े पत्रकारों ने खबर फैला दी कि देवीलाल भारत के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं।

लेकिन कुछ ही मिनटों में सब बदल गया। देवीलाल ने प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वीपी सिंह इस पद के लिए ज्यादा उपयुक्त हैं। इसके बाद वीपी सिंह को प्रधानमंत्री चुना गया। इस घटना ने देवीलाल की त्याग और सादगी की छवि को और मजबूत कर दिया।

प्रधानमंत्री पद की पटकथा: देवीलाल की सादगी और राजनीति

दरअसल, प्रधानमंत्री पद से जुड़े इस घटनाक्रम की स्क्रिप्ट एक दिन पहले ही लिखी जा चुकी थी। 30 नवंबर को ओडिशा भवन में एक अहम बैठक हुई, जिसमें देवीलाल, अरुण नेहरू, वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर और ओडिशा के बीजू पटनायक मौजूद थे। इस बैठक में वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की योजना तैयार की गई। तय हुआ कि अगले दिन वीपी सिंह देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखेंगे, लेकिन देवीलाल विनम्रतापूर्वक इनकार कर देंगे।

देवीलाल ने चंद्रशेखर को वादा किया था कि वे मुकाबले में उतरेंगे, लेकिन इस प्लानिंग के तहत चंद्रशेखर को दरकिनार किया जाना था।

एक दिसंबर को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में जनता दल की बैठक हुई। मधु दंडवते ने संसदीय दल के नेता के रूप में देवीलाल का नाम घोषित किया। तभी देवीलाल खड़े हुए और बोले, "मुझे हरियाणा में ताऊ कहते हैं। यहां भी मैं ताऊ ही बना रहना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनें। इसलिए मैं अपना नाम वापस लेता हूं।"

यह सुनकर चंद्रशेखर भड़क गए। वे नाराजगी जताते हुए बोले, "मुझसे कहा गया था कि देवीलाल को नेता चुना जाएगा। यह धोखा है। मैं इस बैठक से जा रहा हूं।"

इस तरह, पहले से तय रणनीति के अनुसार वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और देवीलाल प्रधानमंत्री पद की दहलीज पर पहुंचकर भी पीछे हट गए। यह घटना देवीलाल की सादगी और राजनीतिक समझ का एक अनूठा उदाहरण बन गई।

उप-प्रधानमंत्री पद की अनोखी शपथ: देवीलाल का साहसिक कदम

2 दिसंबर 1989 को राष्ट्रपति भवन के अशोक हॉल में वीपी सिंह ने देश के सातवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। उनके बाद मंत्री पद की शपथ के लिए चौधरी देवीलाल का नाम पुकारा गया। लेकिन शपथ लेते हुए देवीलाल ने 'मंत्री' के बजाय 'उप-प्रधानमंत्री' कहा।

इस पर राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने तुरंत टोका और कहा, "उप-प्रधानमंत्री नहीं, मंत्री बोलिए।" इसके जवाब में देवीलाल ने और ऊंची आवाज में फिर से 'उप-प्रधानमंत्री' कहा।

राष्ट्रपति की किताब में घटना का जिक्र

वेंकटरमन ने अपनी किताब ‘जब मैं राष्ट्रपति था’ में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, "मैंने अपने सचिव के जरिए वीपी सिंह को संदेश भिजवाया था कि देवीलाल मंत्री के रूप में शपथ लें, और बाद में नोटिफिकेशन जारी कर उन्हें उप-प्रधानमंत्री का दर्जा दे दिया जाए। लेकिन शपथ ग्रहण समारोह शुरू होने तक संदेश नहीं पहुंच पाया।"

वेंकटरमन आगे लिखते हैं, "मैं अशोभनीय स्थिति पैदा नहीं करना चाहता था, इसलिए देवीलाल को जैसा चाहा, वैसा पढ़ने दिया।"

विवाद और आलोचना

देवीलाल के इस कदम की बाद में खूब आलोचना हुई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जहां यह सवाल उठा कि संविधान में 'उप-प्रधानमंत्री' पद का कोई प्रावधान नहीं है। याचिका में तर्क दिया गया कि यदि सरकार इस तरह नए पद बना सकती है, तो भविष्य में 'उप मुख्य न्यायाधीश' या 'उप मुख्य चुनाव आयुक्त' जैसे संवैधानिक पद भी बना दिए जा सकते हैं।

सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने कोर्ट में कहा कि 'उप-प्रधानमंत्री' केवल एक वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव) उपाधि है। कानूनी तौर पर देवीलाल मंत्री ही हैं।

इतिहास में अनूठा स्थान

देवीलाल से पहले सरदार वल्लभभाई पटेल, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम जैसे दिग्गज नेता भी उप-प्रधानमंत्री रह चुके थे। लेकिन उन्होंने हमेशा शपथ 'मंत्री' पद की ही ली। सरकार ने बाद में नोटिफिकेशन जारी कर उन्हें उप-प्रधानमंत्री का दर्जा दिया।

देवीलाल अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने 'उप-प्रधानमंत्री' पद की शपथ ली, और यह घटना भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अनोखी मिसाल बन गई।

निधन और विरासत

चौधरी देवीलाल का निधन 6 अप्रैल 2001 को 85 वर्ष की आयु में हुआ। वे अपने पीछे किसानों और आम जनता के हित के लिए संघर्ष और समर्पण की प्रेरणा छोड़ गए।

चौधरी देवीलाल भारतीय राजनीति में एक सशक्त किसान नेता, समाजसेवी और दूरदर्शी जननेता के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे। उनकी उपलब्धियां और योगदान आज भी हरियाणा और देश के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।


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