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जाट मेहर सिंह फौजी: एक ऐसा कवि जिसने अपनी कविताई से आजादी में अहम भूमिका निभाई

Jat Mehar Singh


फौजी मेहर सिंह भारतीय लोक संगीत और साहित्य के एक अनमोल रत्न थे, जिनकी रचनाएँ हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और अन्य कई स्थानों पर गाई जाती हैं। उनका फौजी जीवन उनके साहित्य और संगीत पर गहरा प्रभाव डालता था, और उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से फौजी जीवन की कठिनाइयों, सुख-दु:ख, पारस्परिक संबंधों और कृषक जीवन को चित्रित किया। उनकी लेखनी केवल फौजी जीवन तक सीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने जीवन के हर पहलू पर अपनी कलम चलाई, जो आज भी लोगों के दिलों में जीवित है।

प्रारंभिक जीवन और परिवार:

फौजी मेहर सिंह का जन्म 15 फरवरी 1918 को हरियाणा के बरोणा गांव में हुआ था, जहां वे नंदराम के घर पैदा हुए थे। वे चार भाइयों — भूप सिंह, मांगेराम, कंवर सिंह — और एक बहन सहजो में सबसे बड़े थे। उनका परिवार आर्थिक दृष्टि से ठीक नहीं था, और इस कारण मेहर सिंह अपनी पढ़ाई को ज्यादा आगे नहीं बढ़ा सके। वे तीसरी कक्षा के बाद पढ़ाई नहीं कर पाए और घर के कामों में हाथ बंटाने लगे। घर में आर्थिक दबाव के कारण, वे पशु चराने और कृषि कार्यों में भी सहायता करते थे।

रागनी का शौक और संघर्ष:

मेहर सिंह का रागनी गाने का शौक बचपन से ही था, हालांकि उनके घर में रागनी गाने पर पाबंदी थी। फिर भी, जब भी उन्हें मौका मिलता, वे रागनी गाने बैठ जाते। उनकी आवाज़ और उनकी रचनाएँ इतनी आकर्षक होती थीं कि वे तुरंत लोगों का ध्यान आकर्षित कर लेतीं। एक बार वे किढौली गांव के खेतों में हल जोतने गए थे, तो गांववाले उनसे रागनी गाने की फरमाइश करने लगे। इस पर वे गाने में इतने मग्न हो गए कि उनका काम और समय की कोई चिंता नहीं रही। मेहर सिंह के भाई भूप सिंह जब खाना लेकर पहुंचे तो देखा कि बैल खड़े हैं और लोग रागनी सुनने में व्यस्त हैं।

इस घटना से उनके पिता नाराज हो गए, क्योंकि उनका मानना था कि रागनी गाना जाटों का काम नहीं, बल्कि डूमों का है। इस वजह से, उनके पिता ने उन्हें जल्द ही शादी के लिए प्रेरित किया और उनकी शादी समसपुर के लखीराम की बेटी प्रेमकौर से कर दी। लेकिन विवाह के बावजूद उनका रागनी गाने का सिलसिला जारी रहा।

फौजी जीवन में प्रवेश और रचनाएँ:

मेहर सिंह का रागनी गायन, उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया था। आखिरकार 1936 में, उन्हें उनके पिता ने उनकी इच्छा के खिलाफ जाट रेजिमेंट में भर्ती करवा दिया। फौज में रहते हुए भी, उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। एक रागनी में उन्होंने अपनी जुदाई और अपने घर-गांव से दूर रहने की पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया:

"देश नगर घर गाम छूटग्या, कित का गाणा गाया रै।
कहै जाट तै डूम हो लिया, बाप मेरा बहकाया रै।"

इसके अलावा, मेहर सिंह को छुट्टियों के बाद फौज में लौटने पर जो मानसिक बोझ महसूस होता था, उसे उन्होंने इस रागनी में व्यक्त किया:

"छुट्टी के दिन पूरे होगे, फिकर करेण लगा मन में।
बांध बिस्तरा चाल पड़ा, के बाकि रहगी तन में।"

देशभक्ति और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति श्रद्धा:

फौजी मेहर सिंह के दिल में देशभक्ति का गहरा भाव था। जब उन्होंने आज़ाद हिंद फौज के नेता नेताजी सुभाष चंद्र बोस के स्वतंत्रता संग्राम के प्रयासों को देखा, तो उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से इसे इस तरह व्यक्त किया:

"घड़ी बीती ना पल गुजरे, उतरा जहाज शिखर तैं।
बरसण लागै फूल बोस पै, हाथ मिले हिटलर तैं।"

यह पंक्तियाँ सुभाष चंद्र बोस के संघर्ष और उनके द्वारा की गई कोशिशों का प्रतीक थीं। मेहर सिंह की लेखनी में देशभक्ति का समर्पण और संघर्ष की भावना हमेशा देखने को मिलती थी।

अपनी मृत्यु का पूर्वाभास और अंतिम रागनी:

फौजी जीवन और कठिनाईयों के बावजूद, मेहर सिंह की लेखनी कभी भी कमजोर नहीं पड़ी। शायद उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास था, क्योंकि उनके एक अंतिम रागनी में यह पंक्तियाँ आईं:

"साथ रहणियां संग के साथी, दया मेरे पै फेर दियो।
देश के ऊपर जान झौंक दी, लिख चिट्ठी में गेर दियो।"

इन पंक्तियों में उन्होंने अपने साथी सैनिकों और अपने देश के प्रति अपनी वफादारी और समर्पण को व्यक्त किया।

शहादत और स्मारक:

फौजी जीवन और कला में अद्वितीय तालमेल बनाने वाले मेहर सिंह ने 1945 में रंगून में शहादत प्राप्त की। उनकी शहादत को सम्मानित करने के लिए, शहीद मेहर सिंह स्मारक समिति उनकी जयंती के अवसर पर 15 फरवरी को हर वर्ष बरोणा गांव में रागनी गायन कार्यक्रम आयोजित करती है। यह आयोजन मेहर सिंह के योगदान को याद करने और उनके बलिदान को सम्मान देने का एक महत्वपूर्ण अवसर बन चुका है।

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