महाराजा सूरजमल : जट्ट जट्ट कहते फिरें, सबने जान्यो काल, जानें उस महान जाट राजा का जीवन जिन्होंने 10 हज़ार सैनिक से 7 फ़ौजों को हरा दिया

18वीं सदी में जब मुगलसराय पतन की ओर था, मराठों, सिखों और जाटों ने न केवल अपनी-अपनी प्रभावशाली राजसत्ता स्थापित कर ली थी, बल्कि दिल्ली सल्तनत को एक तरह से घेर लिया था। उन दिनो…

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Maharaja Surajmal


18वीं सदी में जब मुगलसराय पतन की ओर था, मराठों, सिखों और जाटों ने न केवल अपनी-अपनी प्रभावशाली राजसत्ता स्थापित कर ली थी, बल्कि दिल्ली सल्तनत को एक तरह से घेर लिया था। उन दिनों इन रियासतों में कुछ ऐसे शासक पैदा हुए जिन्होंने अपनी बहादुरी तथा राजनय के बल पर न केवल उस समय की सियासत, बल्कि समाज पर भी गहरा असर डाला। भरतपुर के जाट नरेश महाराजा सूरजमल इनमें अव्वल थे।

महज 56 वर्ष के जीवन काल में इन्होंने आगरा और हरियाणा पर विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार ही नहीं किया बल्कि प्रशासनिक ढाँचे में भी उल्लेखनीय बदलाव किये। जाट समुदाय में आज भी उनका नाम बहुत गौरव और आदर के साथ लिया जाता है।

विद्वान राजनेता कुँवर नटवर सिंह ने प्रामाणिक सूचनाओं और दस्तावेज़ों को आधार बनाकर महाराजा सूरजमल की सियासत और संघर्ष की महागाथा लिखी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो चुकी इस पुस्तक का यह अनुवाद हिन्दी के पाठकों के सामने उनके प्रेरणादायी व्यक्तित्व को रखने का अपनी तरह का पहला उपक्रम है।

भारतीय राज्यव्यवस्था में सूरजमल का योगदान सैद्धान्तिक या बौद्धिक नहीं, अपितु रचनात्मक तथा व्यवहारिक था। जाट-राष्ट्र का सृजन एवं पोषण एक आश्चर्यजनक सीमा तक इस असाधारण योग्य पुरुष का ही कार्य था। मुसलमानों, मराठों या राजपूतों से गठबन्धन का शिकार हुए बिना ही उन्होंने अपने युग पर एक जादू-सा फेर दिया था। 

राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से वह शायद ही कभी पथभ्रान्त हुआ हो। कई बार उनके हाथ में काम के पत्ते नहीं होते थे फिर भी गलत या कमजोर चाल नहीं चलता था। नवजात जाट राज्य की रक्षा करने के लिए उसे सुरक्षित बचाये रखने के लिए साहस तथा सूझबूझ के उत्कृष्टतम गुणों की आवश्यकता थी। उन्होंने न केवल उन दोनों लक्ष्यों को सिद्ध कर लिया, अपितु उस चिरव्यवस्था के काल में अपने लोगों को सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा से सुनिश्चित तथा अति अकांक्षित वरदान देने में भी सफल रहा है। 

उन्होंने जाटों को प्रतिष्ठा तथा स्वाभिमान प्रदान किया। इस पुरुष की बहुमुखी प्रतिभा तथा अतिमानवीय शक्ति ने उन पर गहरा प्रभाव डाला है। विस्मय एवं सराहना के साथ वे उसे एक के बाद एक सफलता प्राप्त करते, संग्राम छेड़ते, घेरे डालते और जीवन के सन्ध्या काल में पुनः संचित शक्ति एवं शान्ति के साथ उभरते देखते रहे।” ( नटवर सिंह, महाराजा सूरजमल, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली)

महाराजा सूरजमल (1707-1763) भरतपुर राज्य के दूरदर्शी जाट महाराजा थे। उनके पिता बदन सिंह ने डीग को सबसे पहले अपनी राजधानी बनाया और बाद में सूरजमल ने भरतपुर शहर की स्थापना की। सूरजमल ने सन् 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढी पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त कर यहाँ 1743 में भरतपुर नगर की नींव रखी जो सन् 1753 से उनका निवास हुआ।

राजा सूरजमल की संतति


महाराजा सूरजमल को चार रानियों से पांच पुत्र जवाहर सिंह, रतन सिंह, नवल सिंह, रणजीत सिंह और नाहर सिंह हुए। माना जाता है कि इनमें से जवाहर सिंह तथा रतन सिंह राजपूत रानी के पेट से जन्मे थे। रणजीत सिंह तथा नाहर सिंह जाट रानियों से उत्पन्न हुए थे, जबकि नवल सिंह की माता माली जाति की थी। महारानी किशोरी ने राजकुमार जवाहर सिंह को गोद ले लिया था। जब जवाहर सिंह ने अपने पिता से विद्रोह किया तब महारानी किशारी ने ही जवाहर सिंह की रक्षा की और उसे क्षमा दिलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।” ( युग निर्माता महाराजा सूरजमल, डॉ. मोहन लाल गुप्ता, राजस्थान ग्रंथकार, जोधपुर)

महाराजा सूरजमल का रणक्षेत्र में युद्धवर्णन


रीतिकाल के कवि सूदन ने अपने सुजानचरित काव्य में युद्धों एवं उन में शामिल योद्धाओं की वीरता का वर्णन किया है। सूदन ने महाराजा सूरज का वर्णन करते हुए लिखा है कि-

गरद मसान किरान बरछा बानन तें, रुस्तम खान घमसान घोर करतौ।
कछूं रेह मुण्ड कहूँ तुण्ड भुजदण्ड झुण्ड, कहूँ पाइ काइ फर मण्डल का भरतौ।
सेल साँग सिप्पर सनाह सर श्रौणित मैं, कोट-काट डारे धर पाइ तौ सौ धरतौ।
हरतौ हरीफ मान तरतौ समुद्ध जुद्ध, कुद्ध ज्वाल जरतौ अराकनि सौं अरतौ।।
गरद गुवार मैं अपार तरवार धार, मारौ निहार मैं किरनि भीर भानकी।
कहरि लहरि प्रलै सिन्धु मैं अधीर (अधीन) मीन, मानौ धुरवान मैंत तक तड़ितान की।।
दावानल ज्योतिन को ज्वाल है कि ज्वाला को अचल चल, ऐसी जंग देखी जहाँ प्रबल पठान की।
भृकुटी भयान की भुजान की उभय की सान, मंगल समान भई मूर्ति सुजान की।।
गेंदा से गुलफ गुलमेंहदी से अन्तभार, कुण्य कलित तास खोपरी सुभाल की।
नासा गुलबासा मुख सूरजमुखी से भुज, कलगा बधूक ओठ जीव दुतिलाल की।।
कोक नद कर ज्यौं करन गुल कोकन से, इंदीवर नैन बाल जाल अलि माल की।
पानी किरवानी सौं हरयानी कर सूरज कै, पर भूमि फूली फुलवारी मानौ काल की।।
दंतिन सौं दिग्गज दुरंदर दबाई दीन्हे, दीपति दराज चारु घंटन के नद्द हैं।
सुंडन झपट्टि कै उलट्टत उदग्ग गिरि, पट्टत समुद्द बल किम्मति विहद्दहैं।।
सूदन भनत सिंह-सूरज तिहारे द्वार, झूमत रहत सदा ऐसे बझकद्द हैं।
रद्द करि कज्जल जलैद्द से समद्द रूप, सोहत दुरद्द जे परद्दल दलद्द हैं।।
एकै एक सरस अनेक जे निहारे तन, भारे लाज भारे स्वामि काम प्रतिपाल के।
चंग लौ उड़ायौ जिन दिल्ली को बजीर भीर, पारी बहु मीरनु किए हैं बेहवाल के।।
सिंह बदनेस के सपूत श्री सुजानसिंह, सिंह लौं झपटि नख करवाल के।
बेटे पटनेरे सेलु सांगन खखेटे भूरि, धूरि सौं लपेटे लेटे भेटे महाकाल के।।
सेलन धकेला ते पठानमुख मैला होत, केते भट मैला है भजयि भ्रुव भंग में।
तेग के कसे ते तुरकानी सब तंग कीन्ही, दंग की दिली औ दुहाई देत बंग में।।
सूदन सराहत सुजान किरवान गहि, धायो धीर वीरताई की उमंगमें।
दक्खिनी पछेला करि खेला तैं अजब खेल, हेला करि गंग में रूहेला मारे जंग में।।
धरि चारि डेरा लूटे, कटे तुरक बेहाल। जट्ट जट्ट कहते फिरें, सबने जान्यो काल।।

हालांकि रीतिकाल के दरबारी कवियों ने अपने राजाओं की प्रशंसा में अतिशयोक्ति अलंकार का बढ़-चढ़कर इस्तेमाल किया है। इसलिए इनके काव्य में मिलने वाली शौर्य गाथाओं को साहित्य का अंग ज्यादा माना जाता है, इतिहास का कम। 

महाराजा सूरजमल की शौर्यगाथा


महाराजा सूरजमल राजनीतिकुशल, दूरदर्शी, सुन्दर और सुडौल थे। उन्होने जयपुर के महाराजा जयसिंह से भी दोस्ती बना ली थी। 21 सितम्बर 1743 को जयसिंह की मौत हो गई और उसके तुरन्त बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में गद्दी के लिये झगड़ा हुआ। महाराजा सूरजमल बड़े बेटे ईश्वरी सिंह के पक्ष में थे जबकि उदयपुर के महाराणा जगत सिंह माधोसिंह के पक्ष में थे। 

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बाद में जहाजपुर में दोनों भाईयों में युद्ध हुआ और मार्च 1747 में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। एक साल बाद मई 1748 में पेशवाओं ने ईश्वरी सिंह पर दबाव डाला कि वो माधो सिंह को चार परगना सौंप दे। फिर मराठे, सिसोदिया, राठौड़ वगैरा सात राजाओं की फौजें माधोसिंह के साथ हो गई और ईश्वरी सिंह अकेला पड़ गया। महाराजा सूरजमल दस हजार सैनिकों के साथ ईश्वरी सिंह की मदद के लिये जयपुर पहुंचे और अगस्त 1748 में सातों फौजों को हरा दिया जिसमे 1 लाख से ऊपर सैनिक थे। ऐसा कहा जाता है कि जाट महाराज सूरजमल के प्रत्येक योद्धा की लंबाई 7 फूट से ऊपर और वजन 150 किलो से अधिक था। इसी के साथ सूरजमल की तूती सारे भारत में बोलने लगी थी।

1753 में महाराजा सूरजमल ने फिरोजशाह कोटला पर किया कब्जा


मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने फिरोजशाह कोटला पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजी-उद-दीन ने फिर मराठों को सूरजमल के खिलाफ भड़काया और फिर मराठों ने जनवरी 1754 से मई 1754 तक भरतपुर जिले में सूरजमल के कुम्हेर किले को घेरे रखा। मराठे किले पर कब्जा नहीं कर पाए और उस लड़ाई में मल्हार राव का बेटा खांडे राव होल्कर मारा गया। मराठों ने सूरजमल की जान लेने की ठान ली थी पर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की मदद से मराठाओं और सूरजमल में संधि करवा दी।

वेंदेल के अनुसार जर्जर मुगल-सत्ता की इसी कालावधि में जाट-शक्ति उत्तरी भारत में प्रबल शक्ति के रूप में उभरकर सामने आई। सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद सन् 1748 के उत्तराधिकार युद्ध में मराठों और राजपूतों सहित सात राजाओं की शक्ति के विरुद्ध कमजोर परन्तु सही पक्ष को विजयश्री दिलाकर सूरजमल ने जाट-शक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध की। उसी समय मुगलों का कोई भी अभियान ऐसा नहीं था जिसमें जाट-शक्ति को सहयोग के लिए आमंत्रित न किया गया हो।

वजीर सफदरजंग तो पूर्णरूप से अपने मित्र सूरजमल की शक्ति पर अवलम्बित था। अपदस्थ वजीर सफदरजंग के शत्रु मीरबख्शी गाजीउद्दीन खां के नेतृत्व में मराठा-मुगल-राजपूतों की सम्मिलित शक्ति सन् 1754 में सूरजमल के छोटे किले कुम्हेर तक को भी नहीं जीत पाई। सन् 1757 में नजीबुद्दौला द्वारा आमंत्रित अब्दाली भी अपने अमानवीय नरसंहार से सूरजमल की शक्ति को ध्वस्त नहीं कर सका। देशद्रोही नजीब ने उस समय वजीर गाजीउद्दीन खां और मराठों के कोप से बचने के लिए अब्दाली को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए सन् 1759 में पुनः आमंत्रित किया था। 

पानीपत के अंतिम युद्ध से पूर्व बरारी घाट के युद्ध में मराठों की प्रथम पराजय के बाद सूरजमल के कट्टर शत्रु वजीर गाजीउद्दीनखां ने भी भागकर जाटों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। 

वेंदेल के अनुसार 'मुगल अहंकार की इतनी कठोर और इतनी सटीक पराजय इससे पहले कभी नहीं हुई थी'। वस्तुतः मुगल सत्ता का गर्वीला और भयावह दैत्य धराशायी हो चुका था जिसके अवशेषों पर महाराजा सूरजमल के नेतृत्व में विलास और आडंबर से दूर, कर्मण्य, शौर्यपरायण, निर्बल की सहायक, शरणागत की रक्षक, प्रजावत्सल, हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रतीक, राष्ट्रवादी जाट-सत्ता की स्थापना हुई।

मराठा और सूरजमल में मतभेद


बाद में 1760 में सदाशिव राव भाऊ और सूरजमल में कुछ बातों पर अनबन हुई थी। मथुरा की नबी मस्जिद को देखकर भाऊ ने गुस्से में कहा - सूरजमल जी, मथुरा इतने दिन से आपके कब्जे में है, फिर इस मस्जिद को आपने कैसे छोड़ दिया? सूरजमल ने जवाब दिया - अगर मुझे यकीन होता कि मैं सारी उम्र इस इलाके का बादशाह रहूंगा तो शायद मैं इस मस्जिद को गिरवा देता, पर क्या फायदा? कल मुसलमान आकर हमारे मंदिरों को गिरवायें और वहीं पर मस्जिदें बनवा दें तो आपको अच्छा लगेगा? 

बाद में फिर भाऊ ने लाल किले के दीवाने-खास की छत को गिरवाने का हुक्म दिया था, यह सोच कर कि इस सोने को बेचकर अपने सैनिकों की तनख्वाह दे दूंगा। इस पर भी सूरजमल ने उसे मना किया, यहां तक कहा कि मेरे से पांच लाख रुपये ले लो, पर इसे मत तोड़ो, आखिर नादिरशाह ने भी इस छत को बख्श दिया था। पर भाऊ नहीं माना - जब छत का सोना तोड़ा गया तो वह मुश्किल से तीन लाख रुपये का निकला। सूरजमल की कई बातों को भाऊ ने नहीं माना और यह भी कहा बताते हैं - मैं इतनी दूर दक्षिण से आपकी ताकत के भरोसे पर यहां नहीं आया हूं।

महाराजा सूरजमल की उदारता


14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। मराठों के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस इलाके का उन्हें भेद था, कई-कई दिन के भूखे सैनिक क्या युद्ध करते ? अगर सदाशिव राव महाराजा सूरजमल से छोटी-सी बात पर तकरार न करके उसे भी इस जंग में साझीदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर और ही होती। 

Maharaja Surajmal


महाराजा सूरजमल ने फिर भी दोस्ती का हक अदा किया। तीस-चालीस हजार मराठे जंग के बाद जब वापस जाने लगे तो सूरजमल के इलाके में पहुंचते-पहुंचते उनका बुरा हाल हो गया था। जख्मी हालत में, भूखे-प्यासे वे सब मरने के कगार पर थे और ऊपर से भयंकर सर्दी। आधों के पास तो ऊनी कपड़े भी नहीं थे। दस दिन तक सूरजमल नें उन्हें भरतपुर में रक्खा, उनकी दवा-दारू करवाई और भोजन और कपड़े का इंतजाम किया। 

महारानी किशोरी ने भी जनता से अपील करके अनाज आदि इक्ट्ठा किया। सुना है कि कोई बीस लाख रुपये उनकी सेवा-पानी में खर्च हुए। जाते हुए हर आदमी को एक रुपया, एक सेर अनाज और कुछ कपड़े आदि भी दिये ताकि रास्ते का खर्च निकाल सकें। 

कुछ मराठे सैनिक लड़ाई से पहले अपने परिवार को भी लाए थे और उन्हें हरियाणा के गांवों में छोड़ गए थे। उनकी मौत के बात उनकी विधवाएं वापस नहीं गईं। बाद में वे परिवार हरयाणा की संस्कृति में रम गए। महाराष्ट्र में 'डांगे' भी जाटवंश के ही बताये जाते हैं और हरियाणा में 'दांगी' भी उन्हीं की शाखा है।

मराठों के पतन के बाद महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक, झज्जर के इलाके भी जीते। 1763 में फरुखनगर पर भी कब्जा किया। वीरों की सेज युद्धभूमि ही है। 25 दिसम्बर 1763 को नवाब नजीबुदौला के साथ युद्ध में महाराज सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए।



यह लेख कई लेखकों की किताबों पर आधारित है। लेख में इस्तेमाल की गई सभी तस्वीरें राजस्थान सरकारी की वेबसाइट से ली गई है।


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